क्या है आखिर मेरी पहचान ? मैं हिंदू हूं मुसलमान हूं सीख हूं क्रिश्चियन हूं, बुद्ध को मानने वाला हूं पारसी हूं आखिर ऐसा क्या है कि मैं पहचान सकूं कि मैं वास्तविकता में हूं कौन? सर पर पगड़ी लगा ली क्या मैं सिख बन गया सर पर सफेद रंग की टोपी पहन ली तो क्या मैं मुसलमान बन गया माथे पर तिलक लगा लिया हाथ में मौली पहन ली तो क्या मैं हिंदू बन गया या गले में जीसस क्राइस्ट का क्रॉस लगा लिया तो मैं ईसाई बन गया , क्या इन बाहरी आवरणों द्वारा ही मेरी पहचान है ? पर यह आवरण तो क्षणिक है तो क्या है मनुष्य की वास्तविक पहचान?
आज के जमाने के कुछ धर्म कहते हैं कि परमात्मा निराकार है केवल उसका कोई रूप नहीं हो सकता और उसी रूप को उसे निराकार रूप को यदि कुछ लोग किसी मूरत में डालना चाहे तो कुछ लोग उसे मूर्त को तोड़ने में लग जाते हैं और वही कुछ धर्म परमात्मा को केवल एक मूर्ति के रूप में ही पूछना चाहते हैं है ना बड़ी विडंबना कि उसे परम तत्व को मनुष्य ने अपने मुताबिक अपनी बहुत छोटी सोच के मुताबिक ढाल कर अपने-अपने तरीके से मनाना शुरू कर दिया है |
अगर कुछ समय के लिए यह मान ले कि परमात्मा या वह शक्ति जिसे पूरा ब्रह्मांड पूरी सताई बनाई है वह केवल निराकार है तो निराकार का अर्थ तो यही होता है ना कि वह सर्वत्र व्याप्त है और अगर वह सर्वत्र व्याप्त है तब तो वह हर पत्थर के अंदर भी व्याप्त हुआ तब किसने अधिकार दिया तुमको कि उसे पत्थर को भी तोड़ने का क्योंकि उसके अंदर भी तो वही परमात्मा हुआ ना और अगर आप रहते हो कि परमात्मा उसे पत्थर के अंदर नहीं है बाकी हर जगह है तो पत्थर भी तो उसे निराकार उसे सुनने के अंदर स्थापित है क्या कभी ऐसा सोचा है या केवल कुछ हजार साल पुरानी एक भाव को लेकर हम बस उसे परमात्मा के रूप को जो बनाया हुआ है उन लोगों के द्वारा जो परमात्मा को एक पत्थर के रूप में पूजना चाहते हैं उनको तोड़ना शुरू कर दो बस क्या यह उचित भाव है?
और इसी के साथ अब हम यह सोच कि केवल परमात्मा उसे एक मूरत के अंदर है जिसके हाथों में या तो धनुष बाण है गधा है सुदर्शन चक्र है बांसुरी है या त्रिशूल है कि जब यह फोटो नजर आएगी यह एक रूप नजर आएगा तभी श्रद्धा से कर झुकेगा क्या परमात्मा इतना विशाल जिसने मात्र एक संकल्प से इस संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना कर डाली क्या वह केवल 4 फुट 10 फुट एक विशेष फुट के दायरे के अंदर सीमित हो गया? यहां खेल आता है मां का की अपने मन को हम किस जगह के ऊपर कहां पर अपने मन को स्थापित करते हैं| बहुत ही छोटी सोच हो जाती है दोनों ही विषयों के अंदर एक विषय की जिसमे परमात्मा को तो निराकार बताया निराकार का अर्थ नहीं समझ आया यहां पर की निराकार का अर्थ होता है कि वह शक्ति जो सर्वत्र व्याप्त है वह किसी रूप में नहीं समा सकती और दूसरी ओर वह लोग की नहीं परमात्मा तो निराकार नहीं है जी परमात्मा तो केवल इस एक विशेष रूपों के अंदर ही आया है तो दोनों प्रकार के भावों को रखने वाले लोग यह भूल गए कि परमात्मा सदा सर्वत्र जड़ चेतन और जो नहीं भी है वहां भी वह है तो इसका अर्थ बना कि वह तो सर्वम-ब्रह्म है वह हर जगह व्याप्त है Everything is HE Only, HE is Everywhere, तो फिर क्यों मनुष्य उसे अपने-अपने भावों को लेकर इतनी मार काट करता है एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करता है अपने आप को उच्च बताने में लगा रहता है परमात्मा प्रोग्रेस के अंदर है प्रगति के अंदर है आपका समाज, समाज का उत्थान जी हां इसी उत्थान के अंदर वह परमात्मा व्याप्त है परमात्मा ने अपने लिए कभी नहीं कहा कि मेरे लिए किसी दूसरे को काटो I तुम यदि किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति को खाना खिलाओगे तो तुम अपवित्र हो जाओगे वह परम सत्ता, वह परम पुरुष प्रत्येक रिलेशन के अंदर है हर व्यक्ति को अपने जीवन के अंदर जो भी उससे मिलता है चाहे वह उसका सांसारिक रिश्तेदार हो या कोई भी हो ऑफिस का हो अननोन पर्सन हो अपरिचित हो हर रूप में व्यक्ति यदि यह सोच ले कि यह परमात्मा का रूप है मैं भी परमात्मा का रूप हूं तो ऐसे में व्यक्ति ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है|
भाव क्या है उसको याद करने का नाम तो कुछ भी हो सकता है यदि कोई व्यक्ति गूंगा है ठीक है और उस गूंगा को नहीं पता कि मुझे करना क्या है लेकिन वह एक ऐसी शक्ति को याद करके आंखों में आंसू भर लेता है जो उसकी उसकी याद दिलाए कि वह शक्ति उसके सबसे नजदीक है सबसे करीब है जिससे वह अपने मन की व्यथा कह सकता है उसमें फिर नाम का कोई महत्व नहीं रहता क्योंकि उसे परम सत्ता को पता है कि वह व्यक्ति इस को याद कर रहा है अब आप चाहे यीशु का को राम का को कृष्ण का को कुछ भी कह लो कोई फर्क नहीं पड़ता अल्लाह कह लो वाहेगुरु कह लो|
यही सबसे महत्वपूर्ण है केवल प्रेम की भाषा बस प्रेम भाव से आप क्या पूछ रहे हैं कि हाथ को ऊपर उठा रहे हैं सजदे में हाथ है कैसे हाथ है फर्क नहीं पड़ता वह अपने-अपने मां का भाव है अपने समर्पण का तरीका है कि मैं कैसे किस प्रकार समर्पण करूं एक टांग उठाकर झुकना है चौकड़ी मार के झुकना है हाथ खड़े करके अपने आप को समर्पित करने किस प्रकार से समर्पित करने हाथ नहीं उठ रहे हैं तंग नहीं मुड़ रही है भाव से समर्पित करना है सर का सारा खेल यहां पर भाव का है सारा खेल भाव का है|
हम सभी लोग पुरातन है सनातन है पुराने समय के हैं सनातन का अर्थ केवल लेने की यहां पर अब आपको बोला जा रहा है कि केवल राम को पूजो कृष्ण को पूजो क्योंकि राम अवतार होने से पहले कृष्ण अवतार होने से पहले भी तो वह परम पुरुष परमात्मा था ना हमारे बीच में इस बात को समझो वह एक भाव था हमारे अंदर की वह परम सत्ता है थोड़ा सा किताबों से निकलकर वास्तविक जीवन में आने का प्रयास करो आदिमानव जब था तब भी वह कुछ नहीं तो आसमान को देखकर ही झुकता था उसको देखकर ही सोचता था कि कोई है वहां पर बैठा हुआ, आसमान क्या है? आसमान ऐसा तो नहीं है ना की 10 फीट ऊपर आसमान है 50 फोटो पर आसमान है 1000 किलोमीटर के बाद आसमान शुरू होता है शून्य तो हर जगह है और शून्य ही सब कुछ समेटे हुए अपने अंदर यही ब्रह्मांड तत्व सब कुछ समेटे हुए अपने अंदर तो उसे भाव को पहचानो वह भाव वह परमात्मा उसे पत्थर के अंदर भी है और निराकार भी है बस सर का सारा खेल हमारे प्रेम भाव का है और वही परमात्मा सर्वत्र विद्वान है|
मैं कौन हूँ
एक यात्री, जो हिमांशु जेटली के नाम से जाना जाता है
क्षणभंगुर सा जीवन है क्षण में युग समाय I
जिस क्षण राम की याद आए वह क्षण राम युग बन जाए II
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